Shiv Tandav Stotram : शिव तांडव स्त्रोत भगवान शिव को सबसे प्रिय है, क्योंकि यह उनके महान भक्त रावण द्वारा रचा गया है। शिव तांडव स्त्रोत की रचना के पीछे भी एक कथा है। कहा जाता है की रावण अत्यंत ज्ञानी पंडित था। रावण भगवान शिव का परम भक्त था। वह पृथ्वी के दक्षिणी किनारे पर सोने की लंका में रहता था। एक बार वह भगवान शिव को अपने साथ लाने के लिए कैलाश पर्वत पहुंच गया। भगवान शिव से भेंट करने से पहले रावण का सामना शिव जी के वाहन नंदी जी से हुआ।
नंदी जी ने रावण को प्रणाम किया तथा उसे समझाया कि भगवान शिव को उनकी इच्छा के विरुद्ध आप कहीं नहीं ले जा सकते, कैलाश उनका प्रिय स्थान है। इस पर अहंकारवश रावण कैलाश पर्वत को ही उठाकर ले जाने के लिए तत्पर हो गया। जैसे ही रावण ने कैलाश पर्वत को अपनी भुजाओं से उठाया सारा कैलाश पर्वत डगमग हिलने लगा। भगवान शिव ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया, जिस कारण रावण की दोनों भुजाएं कैलाश पर्वत के नीचे के नीचे दब गईं और वह भयंकर चीत्कार करने लगा। अपनी भुजाओं को मुक्त करने के लिए उसने भगवान शिव की स्तुति के लिए 1008 छंदों की एक स्रोत की रचना कर दी।
यह स्रोत ही रावण रचित ‘शिव तांडव स्त्रोत’ कहलाया। रावण की स्तुति से भगवान शिव प्रसन्न हुए तथा उसकी भुजाओं को कैलाश पर्वत की पकड़ से मुक्त किया। यहीं पर भगवान शिव ने दशानन को ‘रावण’ नाम दिया। महाशिवरात्रि के पर्व पर शिव तांडव स्त्रोत का पाठ अवश्य ही करना चाहिए क्योंकि शिव तांडव स्त्रोत का पाठ करने से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न रहते हैं तथा भक्तों पर सदैव कृपा बनाए रखते हैं।
Shiv Tandav Stotram : शिव तांडव स्तोत्रं
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥1॥
जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥2॥
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥4॥
सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥5॥
ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥6॥
करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥7॥
नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥13॥
निलिंप नाथनागरी कदंब मौलमल्लिका-निगुंफनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदङ्गजत्विषां चयः ॥14॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥15॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं, यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥17॥
इति श्रीरावण कृतम्
शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम्
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